Family - story

 "फुर्सत के पाँच मिनट"

"बेटा बहुत बड़ा आदमी बन गया है!"
मोहल्ले की औरतें जब भी शांता देवी को देखतीं, यही कहतीं।
शांता देवी बस मुस्कुरा देती थीं, वही पुरानी, फीकी सी मुस्कान।
राघव, उनका इकलौता बेटा, अब किसी बड़े मल्टीनेशनल कंपनी में डायरेक्टर था। महीने के लाखों कमाता था। लक्ज़री फ्लैट, चमचमाती गाड़ी, विदेशों के दौरे, और ऊँचे लोगों की सोहबत — सब कुछ था उसके पास।


लेकिन माँ?
माँ अब भी उसी पुराने मोहल्ले के कोने वाले छोटे से घर में अकेली रहती थीं। एक कमरा, एक रसोई, और कुछ अधूरी यादें।
राघव ने कई बार कहा,
"माँ, अब छोड़ो ये जगह। मेरे साथ चलो ना। एयर कंडीशनर, नौकर, गाड़ी — सब है। तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा।"
माँ मुस्कुरा देतीं,
"बेटा, इन दीवारों में तेरा बचपन गूंजता है। यहाँ तेरी पहली साइकिल गिराई थी, यहाँ पहली बार बुखार में रातभर जागी थी। ये घर तुझसे अलग नहीं है... मैं इसे छोड़ नहीं सकती।"
राघव समझा नहीं। शायद समझना चाहता भी नहीं था।
हर महीने पैसे भेज देता था, एक नौकरानी भी रख दी थी, और एक मोबाइल दे दिया था — जिससे माँ कॉल करती तो ज़्यादा बार 'स्विच ऑफ' मिलता, या फिर एक ही जवाब —
"माँ, अभी मीटिंग में हूँ। बाद में बात करता हूँ।"
माँ फोन रखते हुए बस इतना ही कहतीं,
"ठीक है बेटा, फुर्सत मिले तो बात कर लेना।"
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कुछ महीने बाद...
एक सुबह पड़ोस में रहने वाली सुमन आंटी ने देखा कि शांता देवी के घर से आवाज़ नहीं आ रही। दरवाज़ा खटखटाया, कोई जवाब नहीं।
कुंडी खोल कर देखा — माँ ज़मीन पर गिरी हुई थीं।
जल्दी से हॉस्पिटल लेकर गए। पता चला ब्रेन स्ट्रोक हुआ है। हालत नाज़ुक थी। डॉक्टर ने कहा,
"सिर्फ कुछ घंटे हैं... जल्दी परिवार को बुला लीजिए।"
सुमन आंटी ने काँपते हाथों से राघव को फोन लगाया —
"बेटा, माँ की हालत बहुत खराब है। जल्दी आ जा।"
राघव एक पल को चुप रहा। फिर हड़बड़ाते हुए फ्लाइट पकड़ी और सीधा हॉस्पिटल पहुँचा।
आईसीयू में माँ बेहोश पड़ी थीं। नाक में नली, मशीनों की बीप, और एक ठंडी सफ़ेदी फैली थी पूरे माहौल में।
राघव माँ के पास जाकर बैठा, उनका काँपता हाथ पकड़ा —
"माँ… माँ… देखो मैं आ गया। माफ कर दो मुझे... बहुत बिज़ी हो गया था... लेकिन तुम्हें कभी भुला नहीं पाया..."
माँ की आँखें धीरे-धीरे खुलीं। बहुत थकी हुई थीं, पर बेटे को देखा... होंठ थरथराए।
बहुत धीमे-से बोलीं:
"बस... पाँच मिनट चाहिए थे... पूरे जीवन में..."
और अगले ही पल... मशीन की बीप सीधी हो गई।
राघव वहीं बैठा रह गया। माँ का हाथ थामे हुए, लेकिन अब वो हाथ ठंडे थे... हमेशा के लिए।
😭😭अंतिम दीद
अगले दिन राघव ने माँ के पुराने कमरे में कदम रखा। हर कोना उसकी यादों से भरा था।
पुरानी अलमारी में एक डायरी मिली। पहले पन्ने पर लिखा था:
"राघव बड़ा अफसर बन गया। अब उससे बात करने के लिए 'फुर्सत' चाहिए। मैं इंतज़ार कर लूंगी... मैं तो माँ हूँ।"
राघव फूट-फूट कर रो पड़ा।
उसे पहली बार एहसास हुआ कि जो "फुर्सत" वो माँ को नहीं दे सका, उसी फुर्सत ने उसे जिंदगी भर का पछतावा दे दिया।
मर्मस्पर्शी संदेश:
> “माँ सिर्फ रोटी नहीं सेंकती, वो बेटों की ज़िंदगी भी संवारती है।
लेकिन जब बेटा इतना बड़ा हो जाए कि माँ को वक्त ही न दे —
तो फिर किसी भी ऊँचाई का कोई मतलब नहीं रह जाता।”

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